अंधकार ! गहन अंधकार !!
मानवता का ! मानवीय मूल्यों का !!
किसी तिलिस्मी तिमिर को भी ,
लज्जित और शर्मसार करती ,
इंसानियत को चिथड़ा-चिथड़ा करती ,
पैशाचिक और वीभत्स हुंकार ,
बीच में गूँजते बेमानी आर्त -वेदना-स्वर !
बहरा -बहरा सब कुछ ,
विक्षिप्त सी नीरवता में ,
दरिंदगी का भयावह चक्रवात ,
एकदम बेखौफ़ क्रूर अट्टहास !
लुटती इंसानी अस्मिता ,
कलुषित होती समस्त सभ्यता ,
सिसकती हुई धरती ,
चीत्कार करता आकाश ,
और थर्राते तारों के तले ,
सारी कायनात को धिक्कारते ,
असहायता और बेबसी की मलिन कहानी गढ़ते ,
धीरे-धीरे मन्द पड़ते वेदना के स्वर ,
जैसे दम घुटने से पहले की असह्य पीड़ा !
और इंसानियत की छाती में ,
तीक्ष्ण और नुकीले नेज़े चुभाता ,
भयावह पाशविक नग्न -नाच !
अपनी ही उधेड़बुन की बेहोशी में ,
इससे कुछ दूर सोया हुआ पाषाणी शहर !
और सब कुछ लुटने के बाद ,
मृत आत्माओं के बाजार में ,
बिकती हुई खबर और केवल खबर ,
एक और बलात्कार की !
एक और बलात्कार की !!

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