विलुब्ध नेत्रों के स्फोटक आवेग से ,
देखता हूँ रात्रि-तिमिर को झुठलाते ,
नभ में टँगे हुए तारागणों की ,
मणियों -सी बिखरती चमक ,
और चन्द्रमा की निस्तेज -सी धवल चाँदनी को ,
चारों ओर क्रमबद्ध लैम्पपोस्टों की ,
दूधिया रोशनी से निस्तेज करते ,
कोलतार पथों से सुसज्जित ,
और बड़ी-बड़ी इमारतों के साये में सांस लेते ,
चमकते-दमकते पाषाणी चौराहे को !
जिसके चारों ओर उमड़ता है ,
सबको पीछे बहुत पीछे छोड़कर ,
सबसे आगे निकलने की जुगत ढूँढता ,
भाँति -भाँति के अनगिनत वाहनों का ,
बेचैनियों के समंदर सा उफान लेता ,
कभी न थमने वाला एक अजीब सैलाब !
जिससे उत्पन्न तीक्ष्ण और उदात्त ध्वनि तरंगें ,
इसकी अलसाई आँखों में झाँकती निद्रा को ,
ले जाती हैं इससे दूर बहुत दूर ,
और न जाने कौन-से शाप से ग्रस्त ,
अब पाषाणी हुआ यह चौराहा ,
पलभर को भी सो नहीं पाता !
चाहता है कहना ये भी अपनी इस वेदना को ,
पुकारता है यह भी द्रुत गति से जाते वाहनों को ,
पर कोई अब इससे बात नहीं करता !
कोई भी पलभर इसके पास रुकना नहीं चाहता ,
देखता रहता है यह अपने फटे-फटे अपलक नेत्रों से ,
अंधी दौड़ में भागते वाहनों को !
कभी-कभी इसे याद आता है अपना अतीत ,
जब इसके चारों ओर थे दूर तक जाते कच्चे रास्ते ,
और ताराकिणी निशा के आँचल से झाँकती ,
चन्द्रमा की धवल चाँदनी से सराबोर ,
घने-से एक वृक्ष और अजन्मे से पुष्पों से महकता ,
इसका दूर-दूर से आते पथिकों को आश्रय देता आँगन !
जहां बैलगाड़ियों में या पैदल ,
अपनी-अपनी राह जाते पथिक ,
इसके आँगन में बैठकर पूछते थे इसका हाल ,
रास्ते की थकान मिटाने को ,
करते थे मनोविनोद और हास -परिहास की बातें ,
इसकी धमनियाँ स्पंदित होकर सुनती थीं ,
पैंजनियों की मधुर तरंगें ,
नथुनियों के मोहक ध्वनि आवर्त ,
चूड़ियों की लुभावनी खनक !
और जब निद्रा करती थी उन राहगीरों का आलिंगन ,
तब जैसे यह चौराहा भी उनका हमजोली बनकर ,
उनके साथ कर लिया करता था रजनी विश्राम !
पर कालचक्र में अपनी परिणति स्वयं बुनता ,
अब हतप्रभ और क्षुब्ध है यह पाषाणी चौराहा ,
अपनी बेबसी के गरल को नित पीता ,
अब सो नहीं पाता यह उद्विग्न चौराहा !
चाहकर भी सो नहीं पाता यह बेचैन चौराहा !!