घुमड़ते अवसाद भरे बादलों के साये में ,
क्षुब्धता से देखता हूँ यहीं कुछ दूर ,
गहन अवचेतना में खोया हुआ ,
एक संवेदनाहीन निष्प्राण सा शहर !
चहारदीवारों में कैद हलचल ,
अपनी ही धुन गुनगुनाती दीर्घ लहरियाँ ,
निज स्वार्थ की उत्ताल तरंगें ,
अपेक्षाओं की गठरी बाँधे ,
किसी नाट्यशाला की सी गिड़गिड़ाहट ,
किसी क्षमतावान के लिए दिगंत गान ,
व्योम को भेदती बेसुरी उड़ान ,
आत्मा का अवसान ,
सब कुछ बिखरा-बिखरा ,
चहुँओर टूटा हुआ सा अर्थहीन ,
जंग लगे ढाँचे पर चटकीले रंगों से सुसज्जित ,
अजीब से फँसाव , धिराव और तनाव की ,
उदास सी तान-धुन बुनता शहर !

सुनता हूँ दूर चाय की दुकान पर ,
बड़े-बड़े मनीषियों को भी लजाता ,
उपदेशात्मक और गहन चितन में डूबा ,
देश-विदेश की समस्याओं पर ,
बेबाक सा समाधान का पिटारा ,
आत्म-अभिमान की दुंदुभी ,
आलोचनाओं के प्रखर स्वर ,
किसी न किसी अन्य के निष्पादन हेतु ,
भूमिकाओं का चिंतनशील निर्धारण !
नित केवल बातों का भूचाल ,
कोसते हुए व्यवस्थाओं का वर्त्तमान ,
बुद्धि का भाल तोड़ते ,
निज प्रमादयुक्त प्रखरता से अलंकृत ,
ज्ञान के गहन अभेद्य स्वर !

फिर जैसे सब कुछ नियति-बद्ध सा ,
अपनी उड़ान के भारी भरकम बोझ तले ,
जाने कितने आवरण ओढ़कर ,
सबसे नज़रें चुराता ,
साँस लेने लगता है ,
कोलतार पथों पर द्रुत-गतिमान ,
कठोर शिलाओं को भी लजाता ,
जाने कितने खानों में बँटा ,
प्रमादित मणियों को टटोलता ,
अनमना सा यह पाषाणी शहर !
किसी अवचेतना में खोया पाषाणी शहर !!

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